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मन को शांति कैसे मिलती है - Discover Inner Peace: The Best Ways to Calm Your Mind and Find Serenity

 मन को शांति कैसे मिलती है 

पिछले खाने में हमने जाना था की गुस्से को कैसे काबू कर सकते हैं और एक अच्छा और शांत इंसान कैसे बन सकते हैं पंडित जी के बेटे अभी की कहानी से और आज की इस कहानी में हम जानेगे हम मन की संधि के बारे में भगवान श्री कृष्ण जी का क्या कहना हैं सभी वीडियो की तरह चलते हैं हमारे पंडित जी की कहानी की और और समझते हैं कि मन की शांति के लिए क्या किया जाए |

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Story...

तो ये कहानी शुरू होती है उस वक्त से जब पंडित जी का ब्लॉक और गीता ज्ञान बहुत पॉपुलर हो गया था लोगों के बीच। ये ब्लॉक कोई विचार या टोटका बताने वाला बाबा जी का उपदेश नहीं था और ना ही किसी तरह का तंत्र मंत्र। लोगो की प्रॉब्लम को जड़ से खत्म करने का गारंटी की बात कहता था यहाँ पर हमारे पंडित जी सीधे और सरल भाषा में श्रीमद्भागवत गीता की कि श्लोक का अर्थ क्या है उन्हें किस तरह असली जिंदगी में उतारा जाए ये बताते थे। ब्लॉक पड़ने वाले उनसे सवाल भी करते थे यहाँ पर ऐसा क्यों लिखा गया है या ऐसा क्यों कहा गया है असली जिंदगी में पॉसिबल ही नहीं है। ऐसे ऐसे और भी बहुत कुछ है लेकिन पंडितजी हर सवाल का स्वागत करते थे क्योंकि सवालों सही जवाब के रास्ते खुलते हैं। कई बार तो सवाल हमें उस जवाब तक ले जाते हैं जिन्हें हम ना तो कभी सोच पा रहे थे और न किसी बात को देखने का ऐसा नजरिया बना पा रहे थे।


तो कहानी यह है कि पंडित जी का गीता ज्ञान बस उनके ब्लॉग तक ही सीमित नहीं था। अभी भी अपने दोस्तों के बीच सुबह शाम की सैर या हर शाम पार्क में बैठकर बातें किया करते थे। वहाँ भी उन सब में अक्सर मतभेद होते थे लेकिन मनभेद कभी नहीं होते थे। पंडित जी के दोस्तों में एक वर्मा साहब भी थे। उनका शहर में खूब बड़ा कपड़े का बिज़नेस था जिसे आप उनके बेटे सँभालते हैं।


बर्मा साहब ने तो अब खुद को पूजा पाठ और दान पुण्य तक कि सीमित कर लिया था। शहर की कोई धर्मशाला कोई मंदिर कोई ऐसी सरकारी स्कूल ऐसा नहीं था जहाँ वर्मा साहब की दान की हुई चीजें नहीं थी। ये कैसे पता चलता था की कोई चीज़ बर्मा साहब ने दी है या नहीं उनके दिए हुए हर चीज़ पर हर्दानी की तरह उसका। नाम जो लिखा था रोज़ शाम की बैठक में बर्मा साहब अपने किए दान पुण्य की बातें करते थे। ऐसा करने के पीछे उनका कोई स्वार्थ नहीं था बस आदतन कर देते थे लेकिन बाकी के बुजुर्गों को ऐसा महसूस होता था कि वे अपने अगले जन्मों के लिए कोई पुण्य नहीं कमा पा रहे हैं क्योंकि वो अभी भी घर की जिम्मेदारियों से बंधे हुए हैं। अब वर्मा साहब की तरह हर कोई उतना अमीर तो नहीं था। क्योंकि उनका शहर में बहुत बड़े कपड़े का दुकान था जो आप उनके बेटे संभाल रहे है । बर्मा साहब की कहानी भी बड़ी मजेदार थी।

उनका परिवार बहुत बड़ा था और उनका पापा का एक छोटा सा किराने की दुकान था। बर्मा साहब को कभी भी पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। उनको तो बाजार की चीजें ही अच्छी लगने लगती थी। उनके पिता ने साफ साफ उनको कह दिया था कि या तो तुम पढ़ाई करो नहीं तो दुकान संभालो। बर्मा साहब छोटी सी उम्र में ही दुकानदारी करने लगे थे। अब 20 साल के युवक हो गए थे और जिंदगी घर और दुकान के बीच ठीक ठाक ही चल रहा था कि 1 दिन अचानक उनके पिता चल बसे। अब जाकर बर्मा साहब को एहसास हुआ कि पिता कैसे पूरे परिवार को बांधे हुए थे। उनके बाकी भाई तो पढ़ाई में बीज़ी थे। और उनकी पढ़ाई का सारे खर्च इस छोटी सी दुकान पर ही डिपेंड करते हैं।


इस तरह छोटी सी उम्र में ही एक तरह से पूरे परिवार की जिम्मेदारियां बर्मा साहब पर आ गई और कम उम्र में बड़े बोझ ने उन्हें वक़्त पहले सीरियस बना दिया था। अपनी मेहनत और बिज़नेस माइंड के दम पर बर्मा साहब ने एक छोटी सी दुकान से इस शहर के सबसे बड़े कपड़ा व्यापारी तक सफर तय किया था। आज उनके बेटों के पास एक सफल कारोबार है जिसकी नींव उनके पिता की पसीने की नमी थी।


पंडित जी अक्सर एक बात नोटिस करते हैं कि इतने पूजा पाठ और दान पुण्य के बाद भी जीवन के सारे सुख और सम्मान होने के बाद वे बर्मा साहब की चेहरे पर सुकून गायब रहता जो एक्चुअली में होना चाहिए था। हालांकि वो कभी उनसे पूछने की हिम्मत नहीं कर पाए क्योंकि किसी के जुकाम बुखार के पूछना अलग बात है लेकिन उनके बिना कहे चेहरे से झांकती टेंशन के जिक्र करना क्या पता सामने वाले को अच्छा लगे या ना लगे |


धीरे धीरे बर्मा साहब ने पार्क में आना कम कर दिया पूछे तो बताते हैं कि तबियत थोड़ी खराब है इसलिए नहीं आ पाते थे। सभी लोगों की तरह पंडित जी नेभी इसे उम्र का खेल समझा लेकिन यह खेल कुछ और ही था जिसका पता पंडित जी को बहुत जल्द चलने वाला था। जब लगातार एक हफ्ते तक बर्मा साहब पार्क में नहीं आये तो दोस्तों ने सोचा कि क्यूना उनके घर जाकर उनका हाल पूछा जाए जिसके पास जब समय था उनके घर मिलने चले गए। समय निकालकर पंडित जी भी गए और वहाँ जाकर फिर उन्हें वही एहसास हुआ कि वर्मा साहब को शरीर की नहीं मन की परेशानी थी जिससे वो किसी से बांट नहीं सकते थे। थोड़ी देर बैठने के बाद जब एकांत समय मिला तो पंडित जी ने वर्मा साहब से पूछ ही लिया कि उनकी इस बेसुध होने की वजह क्या है क्या इसके पीछे परिवार या कारोबार की कोई समस्या है या कुछ और बात है |


बर्मा साहब जैसे ही किसीका इस तरह के सवाल पूछने के इंतजार में थे और पंडित जी के प्रति तो उनका मन में बड़ा सम्मान भी था। जानते थे कि पंडित जी बहुत सुलझे हुए इंसान हैं सबके मन की बात को समझने वाले और समझने वाले भी हैं। और उन्होंने पंडित जी से कहा मेरा मन हमेशा शांत रहता है मैं कितना भी पूजा पाठ करो और दान पुण्य करूँ लेकिन मुझे शांति नहीं मिलती मुझे हर वक्त यही लगता है की मुझसे कुछ कमी हो रही है मेरा पूजा ईश्वर तक पहुँच नहीं रही है। मेरे दान मेरे अगले जन्मों के पुण्य के लिए नहीं बदल रहे हैं। पर मैं सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ।

पंडित जी ने एक लंबी सांस भरी और फिर गीता ज्ञान का ये श्लोक सुनाये। 


विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह: |
निर्ममो निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति |


ये श्लोक श्रीमद्भागवत गीता के दूसरे भाग का कतरवास श्लोक हैं। इस लुक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि जो मनुष्य सभी इच्छाओं और कामनाओं को त्यागकर। ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्य का पालन करतेहैं। इसे ही शांति प्राप्त होती है।


मतलब सीधी और सरल भाषा में कहें तो जब हम कोई भी काम करते हैं चाहे वो अपने रोज़मर्रा का काम हो या फिर किसी की मदद करने जैसा काम हो। यदि हम किसी भी तरह के स्वार्थ या अहंकार के साथ करते हैं तब हमें किसी भी तरह से उस काम का सुकून नहीं मिल पाता है। अब जैसे हम किसी का मदद करना चाहते हैं। देखा जाए तो ये बहुत अच्छा विचार है लेकिन इसके साथ ही हम ये भी सोचते हैं कि इस मदद या दान के बदले में हमें पुण्य मिले। हमारे पाप कटे तब हम निस्वार्थ भावना से दान नहीं कर रहे होते इसलिए हो सकता है की हमें पुण्य तो मिल जाये लेकिन शांति न मिले। ये रूल जिंदगी के हर काम पर लागू होता है।


अपने बच्चे को भी अपना इंटेंट नहीं समझना चाहिए कि आज हम उन्हें अच्छे से पा लेंगे तो कल ये हमारी केयर करेंगे उनकी अच्छी सीख और अच्छी लाइफ दे ना हमारी ड्यूटी है हम दान करते हैं क्योंकि हम काबिल है लेकिन उसके बदले में यही उम्मीद रखना की इसके बदले हमारा प्रचार होगा। घमंड की निशानी होती है और इस पर उस हृदय में बात नहीं करते जहाँ घमंड अपना कोई काम करना किसी की मदद करना हमारा फर्ज है जिसे पूरा करना हर किसी की जिम्मेदारी है। इसके बदले कुछ मिलने की आस रखना गलत बात है।


आपको लगता है कि आपके जीवन भर की मेहनत के लिए आपके परिवार को आपके प्रति थैंकफुल होना चाहिए और वे होंगे भी लेकिन इस एहसान का शुक्रिया भी एक समय के बाद बंद करदेंगे लेकिन आप उनसे हर समय ये सुनना चाहेंगे। ऐसा ना होने पर आपको दुख होगा की जबकि देखा जाए तो आपने किसी प्रकार का कोई एहसान नहीं किया है। आपने जो किया है वो परिवार के सदस्य होने के नाते आपकी जिम्मेदारी थी और हर कोई अपने परिवार और समाज के प्रति इसी तरह अपनी जिम्मेदारी निभाता है।


हम पूजा पाठ करते हैं क्योंकि उस भगवान के प्रति हमारा फर्ज है जिसने हमें मनुष्य के रूप में जन्म दिया है और इस धरती के सभी सुख भोगने का अवसर दिया है। अपनी पूजा का प्रदर्शन करके भी हम उस सुख से हाथ धो बैठते। इसलिए कोई भी काम बिना घमंड और सेल्पनेस से किया जाना चाहिए तब मन पर किसी तरह का बोझ नहीं होता। हम जानते हैं कि हमने अपना काम अच्छे से किया है। बाकी उसका फल जो भी मिले उसे इसपर और किस्मत पर छोड़ देना चाहिए।

गीता की इस ज्ञान ने बर्मा साहब की आँखें खोल दी है। उन्हें समझ में आ गया है कि शांति की राह बिना किसी अहंकार और स्वर्ग के ही मिलता है।


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